उपभोक्तावाद की संस्कृति सारांश Class 9

Upbhoktavad ki Sanskriti Summary Class 9

इस पाठ में लेखक श्यामाचरण दुबे जी ने अपने विचार प्रकट करते हुए आज के दौर के चकाचौंध और दिखावटी मानसिकता को दिखाया है। नए-नए भौतिक उत्पादों से सुख होगा जा रहा है। नए उत्पादों के साथ साथ मानव-चरित्र में भी बदलाव आता जा रहा है।

यहां लेखक श्यामाचरण दुबे जी ने यह भी कहा कि नया योग “उपभोक्ता”का योग है जिसमें “उपभोक्तावाद की संस्कृति” खूब फल-फूल रही है। उपभोग-भोग ही सुख बन गया है। दैनिक जीवन में काम आने वाली विभिन्न वस्तुएं , सामग्रियां हमें अपनी ओर खींचते हैं। जैसे दांतों की सुरक्षा और स्वच्छता के लिए अनेक तरह के टूथपेस्ट बाजारों में उपस्थित हैं। परंतु हम तो मशहूर और अच्छा ब्रांड ही लेना पसंद करते हैं।

कोई दांतो को मोतियों के भांति चमकागा,कोई मसूड़ों को मजबूत रखने वाला है तो कोई आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों द्वारा निर्मित। शारीरिक सौंदर्य बढ़ाने के लिए तो हर महीने नए उत्पाद देखने को मिल जाते हैं। जैसे एक साबुन को ही ले लिया जाए एक साबुन त्वचा को कोमल बनाता है तो दूसरा उसे तरोताजा करता है और कुछ तो शुद्ध-गंगाजल से निर्मित है। अधिकांश परिवारों की महिलाएं सौंदर्य-साम्रगी पर हजारों रुपए खर्च कर देती है। और इन सब साम्रगी को बढ़ावा मिलता है इन अनेक प्रकार के विज्ञापनों से।

महिलाएं,लड़कियां तो अपनी पसंद सी हीरोइन को यह साम्रगी का विज्ञापन करते देख उनकी तरफ और भी आकर्षित होती हैं। इसी प्रकार पुरुषों के लिए भी कई तरह की चीजें बाजार में उपलब्ध है। जैसे पेरिस परफ्यूम, जेल, फेरन हैंडसम आदि अनेक प्रकार की क्रीमें। यह प्रतिष्ठा-चिहन् है, जो समाज में आपकी हैसियत दिखाते हैं।

आगे लेखक बताते हैं कि बढ़ते उत्पादों के चलते उपभोक्ताओं पर स्वार्थ हावी होता जा रहा है। पहले घड़ी समय बताती थी, और तब लोग समय देखने के लिए घड़ी का उपयोग करते थे परंतु अब घड़ी समय के साथ साथ उनकी हैसियत दिखाती हैं। स्वार्थ में लोग इतने अंधे हो चुके है कि बढ़ती महंगाई के चलते लोग अपने शारीरिक त्वचा, बनावट,रंग रूप को और नुकसान पहुंचा रहें है परंतु लोग इस बात को नजरंदाज कर रहें हैं। आलू के चिप्स, पिज्जा, बर्गर व फ्रेंच फ्राइज या शीतल पेय पदार्थ यानी “कूड़ा खाद्य” खा-पीकर हम कैसे स्वस्थ रह सकते हैं? यह सब केवल दिखावा ही है जिसे हम केवल समाज में अपनी हैसियत दिखाने के लिए खरीदते व खाते हैं।

यहां लेखक श्यामाचरण दुबे एक प्रश्न करते हैं कि इस उपभोक्ता संस्कृति का विकास भारत में क्यों हो रहा है? अब यह एक चिंता का विषय बनता जा रहा है कि इस संस्कृति के फैलाव के क्या परिणाम निकलेंगे? लोगों में आपसी झगड़ों के कारण उनमें दूरी बढ़ती जा रही है। अनेक संसाधनों का दुरुपयोग किया जा रहा है और लोग विदेशी संस्कृति को अपना रहे हैं। हम सब अपने लक्ष्य को पाने के लिए भटक जाएंगे। इस तरह का अंतर अशांति और एक-दूसरे के प्रति दुश्मनी उत्पन्न करता है। सभी अपने-अपने स्वार्थ को पूरा करने में लगे हुए हैं यदि ऐसा ही रहा तो भारत देश बिखर जाएगा फिर हम में एकता नहीं रहेगी। इस बात का फायदा बाहर का कोई भी उठा सकता है। भोग की इच्छा बहुत ज्यादा फैली हुई है।

इसलिए गांधीजी के अनुसार हमें अपने और दूसरे लोगों के आदर्शों पर टिके रहते हुए स्वास्थ्य सांस्कृतिक प्रभावों को अपनाना चाहिए जिससे हम अपना ही नहीं अपने देश और देश के नागरिकों का भला करेंगे। हमें यह बात हमेशा याद रखनी होगी कि उपभोक्ता संस्कृति हमारे लिए खतरा है और आगे आने वाले समय में यह एक बहुत बड़ी मुसीबत बन सकती है।

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